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Tantra, Agam, Yamal, Damar तंत्र, आगम, यामल, डामर शास्त्र।

तंत्र, आगम, यामल, डामर शास्त्र।

वैचारिक मत से तंत्र शास्त्र चार भागों में विभक्त है। 
१. आगम २. यामल ३. डामर ४. तंत्र

प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माने जाते हैं, ये वो ग्रन्थ हैं जो शिव जी तथा पार्वती या सती के परस्पर वार्तालाप के कारण अस्तित्व में आये हैं तथा भगवान विष्णु द्वारा मान्यता प्रदान किये हुए हैं। भगवान शिव द्वारा बोला गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया ग्रन्थ आगम नाम से जाना जाता हैं इस के विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम ग्रन्थ के नाम से जाना जाता हैं। इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्हीं से इन ग्रंथो को मान्यता प्राप्त हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश को, गणेश द्वारा नंदी को तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथो का उपदेश दिया गया हैं।
आगम ग्रंथो के अनुसार शिव जी पंचवक्त्र हैं, अर्थात इन के पाँच मस्तक हैं, १. ईशान २. तत्पुरुष ३. सद्योजात ४. वामदेव ५. अघोर। शिव जी के प्रत्येक मस्तक, भिन्न भिन्न प्रकार के शक्तिओ के प्रतिक हैं; क्रमशः सिद्धि, आनंद, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया हैं।
भगवान शिव मुख्यतः तीन अवतारों में अपने आप को प्रकट करते हैं १. शिव २. रुद्र तथा ३. भैरव, इन्हीं के अनुसार वे ३ श्रेणिओ के आगमों को प्रस्तुत करते हैं १. शैवागम २. रुद्रागम ३. भैरवागम। प्रत्येक आगम की श्रेणी स्वरूप तथा गुण के अनुसार हैं। 

शिवागम : भगवान शिव ने अपने ज्ञान को १० भागों में विभक्त कर दिया तथा उन से सम्बंधित १० अगम शिवागम नाम से जाने जाते हैं। 
१. प्रणव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, कमिकागम नाम से जाना जाता है।
२. सुधा शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, योगजगाम नाम से जाना जाता है।
३. दीप्त शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, छन्त्यागम नाम से जाना जाता है।
४. कारण शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, करनागम नाम से जाना जाता है।
५. सुशिव शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अजितागम नाम से जाना जाता है।
६. ईश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुदीप्तकागम नाम से जाना जाता है।
७. सूक्ष्म शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सूक्ष्मागम नाम से जाना जाता है।
८. काल शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सहस्त्रागम नाम से जाना जाता है।
९. धनेश शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, सुप्रभेदागम नाम से जाना जाता है।
१०. अंशु शिव और उनसे सम्बंधित ज्ञान, अंशुमानागम नाम से जाना जाता है।

रुद्रागम : रुद्रागम १८ भागों में विभक्त हैं। १. विजय रुद्रागम २. निश्वाश रुद्रागम ३. परमेश्वर रुद्रागम ४. प्रोद्गीत रुद्रागम ५. मुखबिम्ब रुद्रागम ६. सिद्ध रुद्रागम ७. संतान रुद्रागम ८. नरसिंह रुद्रागम ९. चंद्रान्शु रुद्रागम १०. वीरभद्र रुद्रागम ११. स्वयंभू रुद्रागम १२. विरक्त रुद्रागम १३. कौरव्य रुद्रागम १४. मुकुट और मकुट रुद्रागम १५. किरण रुद्रागम १६. गणित रुद्रागम १७. आग्नेय रुद्रागम १८. वतुल रुद्रागम 

भैरवागम : भैरवागम के रूप में, यह ६४ भागों में विभाजित किया गया है।
१. स्वच्छ २. चंद ३. कोर्च ४. उन्मत्त ५. असितांग ६. महोच्छुष्मा ७. कंकलिश ८. ............ ९. ब्रह्मा १०. विष्णु ११. शक्ति १२. रुद्र १३. आथवर्ण १४. रुरु १५. बेताल १६. स्वछंद १७. रक्ताख्या १८. लम्पटाख्या १९. लक्ष्मी २०. मत २१. छलिका २२. पिंगल २३. उत्फुलक २४. विश्वधा २५. भैरवी २६. पिचू तंत्र २७. समुद्भव २८. ब्राह्मी कला २९. विजया ३०. चन्द्रख्या ३१. मंगला ३२. सर्व मंगला ३३. मंत्र ३४. वर्न ३५. शक्ति ३६. कला ३७. बिन्दू ३८. नाता ३९. शक्ति ४०. चक्र ४१. भैरवी ४२. बीन ४३. बीन मणि ४४. सम्मोह ४५. डामर ४६. अर्थवक्रा ४७. कबंध ४८. शिरच्छेद ४९. अंधक ५०. रुरुभेद ५१. आज ५२. मल ५३. वर्न कंठ ५४. त्रिदंग ५५. ज्वालालिन ५६. मातृरोदन ५७. भैरवी ५८. चित्रिका ५९. हंसा ६०. कदम्बिका ६१. हरिलेखा ६२. चंद्रलेखा ६३. विद्युलेखा ६४. विधुन्मन।
तंत्र के शाक्त शाखा के अनुसार; ६४ तंत्र और ३२७ उप तंत्र, यमल, डामर और संहिताये हैं।

आगम ग्रंथो का सम्बन्ध वैष्णव संप्रदाय से भी हैं, वैष्णव आगम, दो भागों में विभक्त हैं प्रथम बैखानक तथा दूसरा पंचरात्र तथा संहिता। बैखानक एक ऋषि का नाम हैं और उसके नौ छात्र १. कश्यप २. अत्री ३. मरीचि ४. वशिष्ठ ५. अंगिरा ६. भृगु ७. पुलत्स्य ८. पुलह ९. क्रतु बैखानक आगम के प्रवर्तक थे। वैष्णवो कि पञ्च क्रियाओं के अनुसार पंचरात्र आगम रचे गए हैं। वैष्णव संप्रदाय द्वारा भगवान विष्णु से सम्बंधित नाना प्रकार की धार्मिक क्रियायों, कर्म जो पाँच रात्रि में पूर्ण होते हैं, का वर्णन वैष्णव आगम ग्रंथो में समाहित हैं। १. ब्रह्मा रात्र २. शिव रात्र ३. इंद्र रात्र ४. नाग रात्र ५. ऋषि रात्र, वैष्णव आगम के अंतर्गत आते हैं। सनत कुमार, नारद, मार्कण्डये, वसिष्ठ, विश्वामित्र, अनिरुध, ईश्वर तथा भरद्वाज मुनि, वैष्णव आगमो के प्रवर्तक थे।

यमला या यामल : साधारणतः यमल का अभिप्राय संधि से हैं तथा शास्त्रों के अंतर्गत ये दो देवताओं के वार्तालाप पर आधारित हैं। जैसे, भैरव संग भैरवी, शिव संग ब्रह्मा, नारद संग महादेव इत्यादि के प्रश्न तथा उत्तर पर आधारित संवाद, यामल कहलाता हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार शिव तथा शक्ति एक ही हैं, इनके एक दूसरे से प्रश्न करना तथा उत्तर देना भी यामलो की श्रेणी में आता हैं। वाराही तंत्र के अनुसार, १. श्रृष्टि २. ज्योतिष ३. नित्य कृत वर्णन ४. क्रम ५. सूत्र ६. वर्ण भेंद ७. जाती भेंद ८. युग धर्मों का यामलो में व्यापक विवेचन हुआ हैं। भैरवागम में व्याप्त भैरवाष्टक के अनुसार, यामल आठ हैं; ब्रह्मयामल, विष्णुयामल, शक्तियामल, रुद्रयामल, आर्थवर्णायामल, रुरुयामल, वेतल्यामाल तथा स्वछंदयामल। 
यामिनी-विहितानी कर्माणि समाश्रीयन्ते तत् तन्त्रं नाम यामलम्।
इन संस्कृत पंक्तियो के अनुसार, वो साधनायें या वे क्रियाएं जो रात के अंधेरे में, गुप्त रूप से की जाती हैं उन्हें यामल कहा जाता हैं, जो अत्यंत डरावनी तथा विकट होती हैं। शिव और शक्ति से सम्बंधित समस्त रहस्य, गुप्त ज्ञान इन्हीं यामल तंत्रो के अंतर्गत प्रतिपादित होता हैं। मुख्य रूप से ६ यामल शास्त्र हैं १. ब्राह्म २. विष्णु ३. रुद्र ४. गणेश ५. रवि ६. आदित्य।

डामर : डामर ग्रन्थ, केवल भगवान शिव द्वारा ही प्रतिपादित हुऐ हैं। डामरो की संख्या ६ हैं, १. योग २. शिव ३. दुर्गा ४. सरस्वती ५. ब्रह्मा ६. गंधर्व।

तंत्र : तांत्रिक ग्रन्थ देवी पार्वती तथा शिव के वार्तालाप के परिणाम स्वरूप प्रतिपादित हुए हैं। पार्वती द्वारा कहा गया तथा शिव जी द्वारा सुना गया, निगम ग्रन्थ तथा शिव द्वारा बोला गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया, आगम ग्रंथो के श्रेणी में आता हैं। तथा इन सभी ग्रन्थ तंत्र, रहस्य, अर्णव इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। तंत्रो, मुख्यतः शिव तथा शक्ति से सम्बंधित हैं, इन्हीं से अधिकतर तंत्र ग्रंथो की उत्पत्ति हुई हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र ग्रंथो के अंतर्गत, विभिन्न साधनाओ, पूजा पथ का ही वर्णन हैं। तंत्र अपने अंदर समस्त प्रकार का ज्ञान समाहित किया हुए हैं, इसी कारण, ऋग्-वेद में तंत्र को ज्ञान का करघा कहा जाता हैं, जो बुनने पर बढ़ता ही जाता हैं।

तंत्र पद्धति में, शैव, शाक्त, वैष्णव, पाशुपत, गणापत्य, लकुलीश, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं तथा शैव तथा शाक्त तंत्र ही जन सामान्य में प्रचलित हैं। ये दोनों तंत्र मूल रूप से एक ही हैं केवल मात्र नाम ही भिन्न हैं, ज्ञान भाव शैव तंत्र का मुख्य उद्देश्य हैं वही क्रिया का वास्तविक निरूपण शाक्त तंत्रों में होता हैं। शैवागम या शैव तंत्र भेद, भेदाभेद तथा अभेद्वाद के स्वरूप में तीन भागों में विभक्त हैं। भेद-वादी शैवागम शैव सिद्धांत के नाम जन सामान्य में जाने जाते हैं, वीर-शैव को भेदाभेद नाम से तथा अभेद्वाद को शिवाद्वयवाद नाम से जाने जाते हैं। माना जाता हैं कि समस्त प्रकार के शिव सूत्रों का उद्भव स्थल, हिमालय कश्मीर में ही हुआ हैं।

मंत्र : देवता का विग्रह मंत्र के रूप में उपस्थित रहता हैं। देवताओं के तीन रूप होते हैं १. परा २. सूक्ष्म ३. स्थूल, सामान्यतः मनुष्य सर्वप्रथम स्थूल रूप की उपासना करते हैं तथा इसके सहारे वे सूक्ष्म रूप तक पहुँच जाते हैं। तंत्रों में अधिकतर कार्य मन्त्रों द्वारा ही होता हैं।

शाक्त तंत्रों की संख्या

महाकाल तंत्र के अनुसार, शाक्त आगमों की संख्या ६४ हैं, उपतंत्र ३२१, संहिता ३०, चूड़ामणि १००, डामर चतुष्क, यामल अष्टक, सूक्त २, पुराण ६, उपवेद १५, कक्ष पुती ३, कल्पाष्टक ८, कल्पलता 2, चिंतामणी ३,अगस्त्य सूक्त, परशुराम सूक्त, दुर्वासा सूक्त, दत्त संहिता, प्रत्यभिज्ञा, शक्ति-सूत्र तथा श्री विद्यारत्न सूत्र हैं। बंगाल के कुछ सिद्ध शक्ति साधकों ने तंत्र को सुरक्षित रखा तथा गलत प्रयोग होने से रोका भी, सर्वानन्द ठाकुर, बामा खेपा, रामप्रसाद सेन, कमलाकांत, रामकृष्ण प्ररामहंस इनमें प्रमुख थे। कश्मीर, बडौदा तथा दरभंगा के महाराज ने विशेष रुचि द्वारा तंत्रों का संग्रह तथा शुद्धि करण किया। दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह के प्रभाव से सर जॉन उड़रफ ने बहुत सरे तंत्रों का जीर्णोद्वार किया।

तांत्रिक साधनाओ का प्रादुर्भाव।

तांत्रिक साधनाओं के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो प्रकार की धारणाएँ हैं, कुछ मानते हैं, तंत्र सर्वप्रथम कश्मीर से उदित हुआ हैं तथा कुछ मानते हैं, तांत्रिक साधनाओ का उदय बंगाल प्रान्त से हुआ हैं। मुख्य रूप से बंगाल के तांत्रिकों ने तंत्र साधनाओ का, संपूर्ण भारत वर्ष, तिब्बत, चीन में खूब प्रचार प्रसार किया, तथा आज भी बंगाल तंत्र साधनाओ हेतु विख्यात हैं। बंगाल से तंत्र विद्या, इंद्र-जाल, काला जादू का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं तथा सर्वाधिक शक्ति पीठ इसी प्रान्त में विद्यमान हैं।
कामाख्या तंत्र पीठो में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली माना जाता हैं, जो बंगाल प्रान्त में ही हैं। आदि काल से ही, कामाख्या तंत्र, इंद्र-जाल तथा काला जादू हेतु प्रसिद्ध हैं। इस के अलावा त्रिपुरेश्वरी, कालिका, त्रिसोता या भ्रामरी, नलहटेश्वरी, फुल्लौरा, कंकलितला, नंदिनी, योगेश्वरी, महिषमर्दिनी, कुमारी, कपालिनी, अपर्णा, महालक्ष्मी, श्रावणी, विमला, जयंती, जुगाड़्या, भवानी, मंगल चंडी, बाहुला, सुगंधा शक्ति पीठ बंगाल प्रान्त में ही विद्यमान हैं, तंत्र क्रियाएं इन्हीं शक्ति पीठो पर अधिक तथा शीघ्र फल दायी होती हैं। तंत्र के अंतर्गत बहुत प्रकार की अलौकिक तामसी शक्ति प्राप्त करने का वर्णन हैं, जिन का प्रयोग घोर कर्मों में भी की जाती हैं, मारण, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन, मोहन घोर कर्मों के श्रेणी में आते हैं। परन्तु इन कर्मों को सामाजिक सुरक्षा तथा उपकार हेतु भी किया जाता हैं।

तंत्र विद्या का सम्बन्ध, उत्पत्ति, विनाश, साधना, अलौकिक शक्तियों से होते हुऐ भी मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार मोक्ष ही सर्वोत्तम तथा सर्वोच्च प्राप्य हैं। मोक्ष यानी जन्म तथा मृत्यु के बंधन से मुक्त हो अपने आत्म तत्व को ब्रह्म में विलीन करना, मोक्ष कहलाता हैं , मानव ८४ लाख योनि प्राप्त करने के पश्चात्, मानव देह धारण करता हैं। तंत्रो के अनुसार मानव शरीर ३ करोड़ नाड़ियों से बना हैं तथा इन में प्रमुख इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना हैं तथा ये मानव देह के अंदर रीड की हड्डी में विद्यमान हैं। तंत्र विद्या द्वारा, कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर, इन्हीं तीन नाड़ियों द्वारा ब्रह्म-रंध्र तक लाया जाता हैं, यह प्रक्रिया पूर्ण योग मग्न कहलाता हैं तथा अपने अंदर ऐसे शक्तियों को स्थापित करता हैं, जिस से व्यक्ति जो चाहे वही कर सकता हैं।

इसके अलावा अन्य मत से तन्त्र मुख्यत: तीन भागों में विभक्त है-कादि,हादि और कहादि!
इन्हें कूट्लय कहते हें!जो तन्त्र महाशक्ति श्री महाकाली के विषय का प्रतिपादन करता है वह कादि है,जो श्रीविद्या के रहस्य का प्रतिपादन करता है वह हादि है और जो तन्त्र तारा के रहस्य को प्रतिपादित करता है वह कहादि कहलाता है !कादि,हादि और कहादि तन्त्र साधना क्षेत्रमत मान लिए गए हैं,तदनुसार कादिमत,हादिमत और कहादिमत के अलग-अलग मन्त्र और यन्त्र विभक्त कर दिए गर है<!इन मन्त्रोंऔर यन्त्रों की साधनाएँ भी अपने-अपने मत के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं!जैसे कादिमत(महाकाली) के सम्बब्धित यन्त्र केवल त्रिकोणों से बनते हैं!हादिमत(श्रीविद्या) से सम्बन्धित यन्त्र शिव शक्ति त्रिकोणों से बनते हैं!कहादिमत(तारा) से सम्बन्धित यन्त्र उभयात्मह होते हैं अर्थात शक्ति त्रिकोणों औरशिवशक्ति त्रिकोणो कामिश्रण इन यन्त्रों की रचना में होता हैं!तान्त्रिक साधना शैव,शाक्त,वैष्णव,,सौर और गाणपत्य पाँच प्रकार की है! शिव की साधना करने वाला शैव,शक्ति की साधना करने वाला शाक्त,विष्णु की साधना करने वाला वैष्णव ,सूर्य की साधना करने वाला सौर और तन्त्रों में सम्प्रदाय भेद,अम्नाय भेद,महाविद्या भेद होने से विभिन्न तन्त्र शास्त्र ओर विभिन्न तान्त्रिक साधनाएँ हैं!!.....इन शास्त्रों,ग्रन्थों की गणना सम्भव नहीं है!शाक्त सम्प्रदाय में ही ग्रन्थ सैकडों-हजारों की संख्या से अधिक है!कालपर्यय मार्ग से शाक्त तन्त्र 64 हैं,उपतन्त्र 321 हैं,संहिताएँ 30 हैं,चूडामणि 100 हैं,अर्णव 9 हैं,यामल 8 हैं,इनके अतिरिक्त डामरतन्त्र,उड्डामर तन्त्र,कक्षपुटी तन्त्र,विभीषणी तन्त्र,उद्यालाप तन्त्र आदि हजारो ,लाखों की संख्या में है!अगर यह कहा जाए की तन्त्र किनारारहित सागर है तो गलत न होगा !विविध प्रकार के तन्त्र अधिकारी भेद से भिन्न-भिन्न कोटि में नियोजित होतें है! यान-काल आदि भिन्न-भिन्न पर्यायों में इनकी गणना अलग-ालग है ,इसलिए कोई भी यह कहने का दावा नही कर सकता की तन्त्र विद्या केवल इतनी ही है!तन्त्र साधना में दीक्षा की आवश्यक्ता साधक को शुद्ध बनाने के लिए है! दीक्षारुपी अग्नि किण्डली के जाग्रत होने से साधक का मल नष्ट हो जाता है कर्ममल समाप्त हो जाता है और वह शिवतत्वमत बन जाता हैं! दीक्षा ,अभिषेक,भूतशुद्धि प्रत्येक तान्त्रिक साधना के प्रारम्भ का ऎसा विधान है,जो विग्यान और क्रिया द्वारा साधक का निर्मल हो जाना ही ईन विधानो क मुखय उद्देश्य है!निर्मलता प्राप्त होने पर साधक को सहज अवस्था प्राप्त होती है और सहज अवस्था प्राप्त होनेपर शक्ति बोध होता है

हिंदू धर्म में हजारों तरह की विद्याओं और साधनाओं का वर्णन मिलता है। साधना से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। व्यक्ति सिद्धियां इसलिए प्राप्त करना चाहता है, क्योंकि या तो वह उससे सांसारिक लाभ प्राप्त करना चाहता है या फिर आध्यात्मिक लाभ। मूलत: साधना के चार प्रकार माने जा सकते हैं- तंत्र साधना, मंत्र साधना, यंत्र साधना और योग साधना। चारों ही तरह की साधना के कई उप प्रकार हैं। सवाल यह है कि तंत्र साधना क्या है?

तंत्र विद्या, साधना या तंत्र शास्त्र का नाम सुनते ही लोगों में भय व्याप्त हो जाता है। माना जाता है कि यह कोई भयानक विद्या या अघोरियों की साधना होगी। लेकिन ऐसा नहीं है।

अघोर साधना अलग होती है और तंत्र साधना अलग। तंत्र, मंत्र और यंत्र में तंत्र को सबसे पहले रखा गया है। तंत्र एक रहस्यमयी विद्या है। हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध और जैन धर्म में भी इस विद्या का प्रचलन है।
तंत्र के ग्रंथ : तंत्र को मूलत: शैव आगम शास्त्रों से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इसका मूल अथर्ववेद में पाया जाता है। तंत्र शास्त्र 3 भागों में विभक्त है आगम तंत्र, यामल तंत्र और मुख्‍य तंत्र। आगम में शैवागम, रुद्रागम और भैरवागमन प्रमुख है।

वाराहीतंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि प्रलय, देवताओं की पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे 'आगम' कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे 'यामल' कहते हैं। इसी तरह जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र, निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन हो, वह 'मुख्य तंत्र' कहलाता है।

वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत में हैं। तंत्र साहित्य विस्मृति के चलते विनाश और उपेक्षा का शिकार हो गया है। अब तंत्र शास्त्र के अनेक ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 199 तंत्र ग्रंथ हैं। तंत्र का विस्तार ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईदेश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ऋगयुद कहा जाता है। समस्त ऋगयुद 78 भागों में है जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र ग्रंथों का अनुवाद है और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित है।

3.रहस्यमयी विद्याएं : तंत्र में बहुत सारी विद्याएं आती है उसी में एक है गुह्य-विद्या। गुह्य का अर्थ है रहस्य। तंत्र विद्या के माध्‍यम से व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति का विकास करके कई तरह की शक्तियों से संपन्न हो सकता है। यही तंत्र का उद्देश्य है। इसी तरह तंत्र से ही सम्मोहन, त्राटक, त्रिकाल, इंद्रजाल, परा, अपरा और प्राण विद्या का जन्म हुआ है। तंत्र से वशीकरण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन और स्तम्भन क्रियाएं भी की जाती है।

इसी तरह मनुष्य से पशु बन जाना, गायब हो जाना, एक साथ 5-5 रूप बना लेना, समुद्र को लांघ जाना, विशाल पर्वतों को उठाना, करोड़ों मील दूर के व्यक्ति को देख लेना व बात कर लेना जैसे अनेक कार्य ये सभी तंत्र की बदौलत ही संभव हैं। तंत्र शास्त्र के मंत्र और पूजा अलग किस्म के होते हैं।

4.तांत्रिक गुरु : तंत्र के प्रथम उपदेशक भगवान शंकर और उसके बाद भगवान दत्तात्रेय हुए हैं। बाद में सिद्ध, योगी, शाक्त और नाथ परंपरा का प्रचलन रहा है। तंत्र साधना के प्रणेता, शिव, दत्तात्रेय के अलावा नारद, परशुराम, पिप्पलादि, वसिष्ठ, सनक, शुक, सन्दन, सनतकुमार, भैरव, भैरवी, काली आदि कई ऋषि मुनि इस साधना के उपासक रहे हैं।

ब्रह्मयामल में बहुसंख्यक ऋषियों का नामोल्लेख है, जिसमें शिव ज्ञान के प्रवर्तक थे; उनमें उशना, बृहस्पति, दधीचि, सनत्कुमार, नमुलीश आदि उल्लेख मिलता है। जयद्रथयामल के मंगलाष्टक प्रकरण में तन्त्र प्रवर्तक बहुत से ऋषियों के नाम हैं, जैसे दुर्वासा, सनक, विष्णु, कस्प्य, संवर्त, विश्वामित्र, गालव, गौतम, याज्ञवल्क्य, शातातप, आपस्तम्ब, कात्यायन, भृगु आदि।


5.तंत्र से हथियार :- तंत्र के माध्यम से ही प्राचीनकाल में घातक किस्म के हथियार बनाए जाते थे, जैसे पाशुपतास्त्र, नागपाश, ब्रह्मास्त्र आदि। जिसमें यंत्रों के स्थान पर मानव अंतराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता संपन्न बनाया जाता है जिससे प्रकृति से सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणित हो जाते हैं जिसमें कि मनुष्य चाहता है।

पदार्थों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस तंत्र भाग को 'सावित्री विज्ञान' तंत्र-साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं। तंत्र-शास्त्र में जो पंच प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है। मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है।


6.तांत्रिक साधना :  तांत्रिक साधना को साधारणतया 3 मार्ग- वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग और मध्यम मार्ग कहा गया है। हालांकि यह मुख्यत: दो प्रकार की होती है- एक वाम मार्गी तथा दूसरी दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है। वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं!


शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा।

गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥

अर्थात शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म।



इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:-

मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्‌।

आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥

अर्थात: मारण, मोहनं, स्तम्भनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं।



रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता।

विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्‌॥

पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्‌।

स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥

प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्‌|


प्राचीनकाल में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्‍वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया।

हजारों वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का धर्म प्रकट हुआ, यही आगे चलकर यही वैष्णव और शैव में बदल गए। लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे। इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।

शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय ‍बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।

इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदायों माने जा सकते हैं:- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं। हालांकि आजकल सब कुछ होचपोच।

हालांकि सभी संप्रदाय का धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध किया है। जो ग्रंथ ब्रह्म (परमेश्वर) के मार्ग से भटकाए, वे सभी अवैदिक माने गए हैं।

*वैष्णव संप्रदाय के उप संप्रदाय : वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं- जैसे बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी, गौड़ीय आदि। वैष्णव का मूलरूप आदित्य या सूर्य देव की आराधना में मिलता है। भगवान विष्णु का वर्णन भी वेदों में मिलता है। पुराणों में विष्णु पुराण प्रमुख है। विष्णु का निवास समुद्र के भीतर माना गया है।

*विष्णु के अवतार : शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख 10 अवतार माने जाते हैं- मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि।

24 अवतारों का क्रम निम्न है-1. आदि परषु, 2. चार सनतकुमार, 3. वराह, 4. नारद, 5. नर-नारायण, 6. कपिल, 7. दत्तात्रेय, 8. याज्ञ, 9. ऋषभ, 10. पृथु, 11. मत्स्य, 12. कच्छप, 13. धन्वंतरि, 14. मोहिनी, 15. नृसिंह, 16. हयग्रीव, 17. वामन, 18. परशुराम, 19. व्यास, 20. राम, 21. बलराम, 22. कृष्ण, 23. बुद्ध और 24. कल्कि।

*वैष्णव ग्रंथ : ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है। ईश्वर संहिता, पाद्मतन्त, विष्णु संहिता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण आदि।

*वैष्णव पर्व और व्रत : एकादशी, चातुर्मास, कार्तिक मास, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, होली, दीपावली आदि।

*वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम ( badrinath), मथुरा ( mathura), अयोध्या ( ayodhya), तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।

*वैष्णव संस्कार : 1. वैष्णव मंदिर में विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां होती हैं। एकेश्‍वरवाद के प्रति कट्टर नहीं है। 2. इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं। 3. इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं। 4. ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं। 5. ये सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं। 6. जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं। 7. वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। 8. वैष्णव दाह-संस्कार की रीति है। 9. यह चंदन का तिलक खड़ा लगाते हैं। 10.

वैष्णव साधु-संत : वैष्णव साधुओं को आचार्य, संत, स्वामी आदि कहा जाता है।

शैव संप्रदाय के उप संप्रदाय : शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के 4 संप्रदाय बतलाए गए हैं- शैव, पाशुपत, कालदमन और कापालिक। शैव मत का मूल रूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में है। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए। इनकी पत्नी का नाम है पार्वती जिन्हें दुर्गा भी कहा जाता है। शिव का निवास कैलाश पर्वत पर माना गया है।

*शिव के अवतार : शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है, जो निम्नलिखित है- 1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 5.भैरव, 6.छिन्नमस्तक गिरिजा, 7.धूम्रवान, 8.बगलामुखी, 9.मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं।

शिव के अन्य 11 अवतार : 1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरुपाक्ष, 4. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 9. शम्भू, 10. चण्ड तथा 11. भव का उल्लेख मिलता है।

इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है जिन्हें अंशावतार माना जाता है।

*शैव ग्रंथ : वेद का श्‍वेताश्वतरा उपनिषद ( Svetashvatara Upanishad), शिव पुराण ( Shiva Purana), आगम ग्रंथ ( The Agamas) और तिरुमुराई ( Tiru-murai- poems) ।

शैव व्रत और त्योहार : चतुर्दशी, श्रावण मास, शिवरा‍त्रि, रुद्र जयं‍‍ती, भैरव जयंती आदि।

*शैव तीर्थ : 12 ज्योतिर्लिंगों में खास काशी ( kashi), बनारस ( Benaras), केदारनाथ ( Kedarnath), सोमनाथ ( Somnath), रामेश्वरम ( Rameshvaram), चिदम्बरम ( Chidambaram), अमरनाथ ( Amarnath) और कैलाश मानसरोवर ( kailash mansarovar) ।

*शैव संस्कार : 1. शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। 2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं। 3. इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। 4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। 5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। 6. ये निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। 7. शैव चन्द्र पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं। 8. शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। 9. शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं, जहां सिर्फ शिवलिंग होता है। 10. ये भभूति तिलक आड़ा लगाते हैं।

शैव साधु-संत : शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, ओघड़, योगी, सिद्ध आदि कहा जाता है।

नोट : मान्यता है कि हिन्दू धर्म में आमजनों को अग्निदाह और साधुओं को समाधि दी जाती है। उक्त जानकारी आमजनों के समझने हेतु संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की गई है। इसे पूर्ण न समझा जाए।

शाक्त धर्म : मां पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह प्रकृति नहीं हो जाती। हर मां प्रकृति है। जहां भी सृजन की शक्ति है, वहां प्रकृति ही मानी गई है इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है।

शाक्त संप्रदाय को शैव संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। शाक्तों का मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रैण है इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।

मां पार्वती : मां पार्वती का मूल नाम सती है। ये 'सती' शब्द बिगड़कर शक्ति हो गया। पुराणों के अनुसार सती के पिता का नाम दक्ष प्रजा‍पति और माता का नाम मेनका है। पति का नाम शिव और पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं। यज्ञ में स्वाहा होने के बाद सती ने ही पार्वती के रूप में हिमालय के यहां जन्म लिया था।

इन्हें हिमालय की पुत्री अर्थात उमा हैमवती भी कहा जाता है। दुर्गा ने महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करके जनता को कुतंत्र से मुक्त कराया था। उनकी यह पवित्र गाथा मार्केण्डेय पुराण में मिलती है। उन्होंने विष्णु के साथ मिलकर मधु और कैटभ का भी ‍वध किया था।

भैरव, गणेश और हनुमान : अकसर जिक्र होता है कि मां दुर्गा के साथ भगवान भैरव, गणेश और हनुमानजी हमेशा रहते हैं। प्राचीन दुर्गा मंदिरों में आपको भैरव और हनुमानजी की मूर्तियां अवश्य मिलेंगी। दरअसल, भगवान भैरव दुर्गा की सेना के सेनापति माने जाते हैं और उनके साथ हनुमानजी का होना इस बात का प्रमाण है कि राम के काल में ही पार्वती के शिव थे।

प्रमुख पर्व नवदुर्गा : मार्कण्डेय पुराण में परम गोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों की रक्षार्थ बताया गया है। जो देवी की 9 मूर्तियांस्वरूप हैं जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।

धर्म ग्रंथ : शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी 51-52 शक्तिपीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशती भी है।

शाक्त धर्म का उद्देश्य : सभी का उद्देश्य मोक्ष है फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त संप्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियां प्राप्त करते रहते हैं।

स्मार्त :
वेदों को श्रुति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात जिस ज्ञान को परमेश्वर से सुनकर जाना गया। वेदों को छोड़कर सभी ग्रंथ स्मृति ग्रंथ कहलाते हैं अर्थात जिस ज्ञान को परंपरा के माध्यम से जाना या जिसे स्मृतियों के आधार पर जाना। अधिकतर लोग इस संप्रदाय का नाम शंकराचार्य से जोड़ते हैं। शंकराचार्य ने तो दसनामी संप्रदाय की स्थापना की थी, जो सभी शिव के उपासक शैव पंथ से हैं।

धर्मग्रंथ : सभी पुराण, स्मृतियां।

प्रमुख देवता : शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य एवं गणेश।

स्मृति ग्रंथों में मनु स्मृति सहित सभी स्मृतियां और पुराण आते हैं। वेदों को छोड़कर जो इन ग्रंथों पर आधारित जीवन-यापन करते हैं उनको स्मार्त संप्रदाय का माना जाता है। जैसे जो विष्णु को भी माने और शिव को भी, दुर्गा को भी और अन्य देवी-देवताओं का भी पूजन करें, वे सभी स्मार्त संप्रदाय के हैं। अधिकतर हिन्दू स्मार्त संप्रदाय के ही हैं जिसमें एकनिष्ठता का अभाव है।

वैदिक संप्रदाय : हालांकि सभी संप्रदाय का धर्मग्रंथ वेद ही है। सभी संप्रदाय वैदिक धर्म के अंतर्गत ही आते हैं लेकिन आजकल यहां भेद करना जरूर हो चला है, क्योंकि बीच-बीच में ब्रह्म समाज, आर्य समाज और इसी तरह के प्राचीनकालीन समाजों ने स्मृति ग्रंथों का विरोध किया है।

संत मत : भारत के संत मत को भी वैदिक संप्रदाय का माना जाता है जैसे कबीर, दादू आदि सभी एकेश्‍वरवाद पर ही जोर देते हैं।

वैदिक धर्म-कर्म पर आधारित हैं। इसमें एक परमेश्‍वर को ही सर्वोपरि शक्ति माना जाता है।


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