प्रदोष काल (Pradosh kaal), प्रहर prahar, संधि काल, sandhi kaal
Rudrapaathi रुद्रपाठी
स्कंद पुराण के अनुसार प्रत्येक माह की दोनों पक्षों की त्रयोदशी के दिन संध्याकाल के समय को "प्रदोष" Pradosh कहा जाता है और इस दिन शिवजी को प्रसन्न करने के लिए प्रदोष व्रत (Pradosh Vrat) प्रदोष व्रत रखा जाता है।
प्रदोष काल में किये जाने वाले नियम, व्रत एवं अनुष्ठान को प्रदोष व्रत या अनुष्ठान कहा गया है। व्रतराज नामक ग्रन्थ में सूर्यास्त से तीन घटी पूर्व के समय को प्रदोष का समय माना गया है। अर्थात् सूर्यास्त से सवा घण्टा पूर्व के समय को प्रदोष काल कहा गया है। तिथियों में त्रयोदशी तिथि को भी प्रदोष तिथि की संज्ञा प्रदान की गयी है। इसका मतलब सायंकालीन त्रयोदशी तिथि को किया जाने वाला व्रत प्रदोष व्रत कहलाता है। प्रदोष व्रत पूर्व विद्धा तिथि के संयोग से मनाया जाता है। अर्थात् द्वादशी तिथि से संयुक्त त्रयोदशी तिथि को यह व्रत आचरित किया जाता है। पक्ष भेद होने के कारण इसे शुक्ल या कृष्ण प्रदोष व्रत कहा जाता है। भगवान शिव को यह व्रत परम प्रिय है इसलिये इस व्रत में शिवजी की उपासना की जाती है।
दिनों के संयोग के कारण प्रदोष व्रत के नाम एवं उसके प्रभाव में अन्तर हो जाता है। जैसे रविवार को प्रदोष हो तो इसका नाम रविप्रदोष हो जाता है। इसका फल आरोग्य की प्राप्ति बतलाया गया है। सोम प्रदोष व्रत का फल पुत्र की प्राप्ति है। शुक्रप्रदोष से सौभाग्य यानी पति एवं स्त्री को समृद्धि की प्राप्ति होती है। शनिप्रदोष का महाफल बतलाया गया है। प्रदोष व्रत करने वाले स्त्री या पुरुषों को चाहिये कि व्रत के पूर्व दिन सायंकाल नियम पूर्वक व्रत ग्रहण करें। व्रत के दिन प्रात: काल नित्य कर्मादि संपन्न कर संकल्पपूर्वक दिन भर उपवास करें। प्रदोष काल में उमा महेश्वर जी का पूजन पास के किसी देवालय या घर में करें।
अपनी सामथ्र्य के अनुसार पूजन सामग्री, प्रसाद, फूलमाला, फल, विल्वपत्रदि लाकर संभव हो सके तो पति-पत्नी एक साथ बैठकर शिव जी का पूजन करें। यदि मंत्र इत्यादि न आता हो तो नम: शिवाय का उच्चारण करते हुए पूजन करें। पूजन के उपरांत शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण करें। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्यक्ति की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
(Pradosh Vrat) प्रदोष व्रत
(Pradosh Vrat) प्रदोष व्रत
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प्रदोष काल (Pradosh kaal), प्रहर prahar, संधि काल, sandhi kaal
हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रदोष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है।[1] मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेव कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह केसातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है।
प्रदोष व्रत के विषय में गया है कि अगर रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे। [3]
सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलितहोती है। [4]
मंगलवार कोप्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।[5]
बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होतीहै। [6]
बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है। शुक्र प्रदोष व्रत सेसौभाग्य की वृद्धि होती है। [7]
शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है।[8]
पौराणिक सन्दर्भ
[9] इस व्रत के महात्म्य को गंगा के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान केभक्त सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूतजी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगाहर तरफ अन्याय और अनाचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुख होकर नीच कर्म में संलग्न होगा उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोकको प्राप्त होगा। [10]सूत जी ने शौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत से पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पाप नष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी है इस व्रत के प्रभाव से मनुष्यको अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग अलग दिन के प्रदोष व्रत सेक्या लाभ मिलता है यह भी सूत जी ने बताया। सूत जी ने शौनकादि ऋषियों कोबताया कि इस व्रत के महात्मय को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती कोसुनाया था। मुझे यही कथा और महात्मय महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यह उत्तम व्रत महात्म्य मैने आपको सुनाया है। प्रदोष व्रत विधानसूत जी ने कहा है प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकरकी पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल अक्षत धूप दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।
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रवि त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
॥ दोहा ॥
आयु, बुद्धि, आरोग्यता, या चाहो सन्तान ।
शिव पूजन विधवत् करो, दुःख हरे भगवान ॥
किसी समय सभी प्राणियों के हितार्थ परम् पुनीत गंगा के तट पर ऋषि समाज द्वारा एक विशाल सभा का आयोजन किया गया, जिसमें व्यास जी के परम् प्रिय शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। शौनकादि अट्ठासी हज़ार ऋषि-मुनिगण ने सूत जी को दण्डवत् प्रणाम किया। सूत जी ने भक्ति भाव से ऋषिगण को आशीर्वाद दे अपना स्थान ग्रहण किया। ऋषिगण ने विनीत भाव से पूछा, "हे परम् दयालु! कलियुग में शंकर भगवान की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी? कलिकाल में जब मनुष्य पाप कर्म में लिप्त हो, वेद-शास्त्र से विमुख रहेंगे। दीनजन अनेक कष्टों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ! कलिकाल में सत्कर्मं में किसी की रुचि न होगी, पुण्य क्षीण हो जाएंगे एवं मनुष्य स्वतः ही असत् कर्मों की ओर प्रेरित होगा। इस पृथ्वी पर तब ज्ञानी मनुष्य का यह कर्तव्य हो जाएगा कि वह पथ से विचलित मनुष्य का मार्गदर्शन करे, अतः हे महामुने! ऐसा कौन-सा उत्तम व्रत है जिसे करने से मनवांछित फल की प्राप्ति हो और कलिकाल के पाप शान्त हो जाएं?
'सूत जी बोले-' हे शौनकादि ऋषिगण! आप धन्यवाद के पात्र हैं। आपके विचार प्रशंसनीय व जनकल्याणकारी हैं। आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, आप धन्य हैं। हे शौनकादि ऋषिगण! मैं उस व्रत का वर्णन करने जा रहा हूँ जिसे करने से सब पाप और कष्ट नष्ट हो जाते हैं तथा जो धन वृद्धिकारक, सुख प्रदायक, सन्तान व मनवांछित फल प्रदान करने वाला है। इसे भगवान शंकर ने सती जी को सुनाया था।
'सूत जी आगे बोले-' आयु वृद्धि व स्वास्थ्य लाभ हेतु रवि त्रयोदशी प्रदोष का व्रत करें। इसमें प्रातः स्नान कर निराहार रहकर शिव जी का मनन करें। मन्दिर जाकर शिव आराधना करें। माथे पर त्रिपुण धारण कर बेल, धूप, दीप, अक्षत व ऋतु फल अर्पित करें। रुद्राक्ष की माला से सामर्थ्यानुसार, ॐ नमः शिवाय जपे। ब्राह्मण को भोजन कराऐं और दान-दक्षिणा दें, तत्पश्चात्त मौन व्रत धारण करें। संभव हो तो यज्ञ-हवन कराऐं। ॐ ह्रीं क्लीं नमः शिवाय स्वाहा मंत्र से यज्ञ-स्तुति दें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। प्रदोष व्रत में व्रती एक बार भोजन करे और पृथ्वी पर शयन करे। इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में इस व्रत का विशेष महत्त्व है। सभी मनोरथ इस व्रत को करने से पूर्ण होते हैं।
प्रदोष काल (Pradosh kaal), प्रहर prahar, संधि काल, sandhi kaal
व्रत कथा
एक ग्राम में एक दीन-हीन ब्राह्मण रहता था। उसकी धर्मनिष्ठ पत्नी प्रदोष व्रत करती थी। उनके एक पुत्र था। एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहाँ रखा है। बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यन्त निर्धन और दुःखी हैं। उनके पास गुप्त धन कहाँ से आया।। चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे छोड़ दिया। बालक अपनी राह हो लिया। चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया। तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले। उन्होंने ब्राह्मण-बालक को चोर समझकर बन्दी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारावास में डलवा दिया। उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी। उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है। यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा। सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया। बालक ने राजा को सच्चाई बताई। राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया। उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कुराते हुए कहा- 'तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है। तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं।' इस तरह ब्राह्मण आनन्द से रहने लगा। शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।
सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत से शिव-पार्वती प्रसन्न होते हैं। व्रती के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं।
(Pradosh Vrat) प्रदोष व्रत कथा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके पति का स्वर्गवास हो गया था। उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख माँगने निकल पड़ती थी। भिक्षाटन से ही वह स्वयं व पुत्र का पेट पालती थी। एक दिन ब्राह्मणी घर लौट रही थी तो उसे एक लड़का घायल अवस्था में कराहता हुआ मिला। ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई। वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था। शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बन्दी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था। राजकुमार ब्राह्मण-पुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा। एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई। अगले दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई। उन्हें भी राजकुमार भा गया। कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए। उन्होंने वैसा ही किया। ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी। उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा। राजकुमार ने ब्राह्मण-पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया। ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दूसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।
मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत व्याधियों का नाश करता है। ऋण से मुक्ति प्रदान करता है, सुख-शान्ति और श्रीवृद्धि करता है।
व्रत कथा
एक नगर में एक वृद्धा निवास करती थी। उसके मंगलिया नामक एक पुत्र था। वृद्धा की हनुमान जी पर गहरी आस्था थी। वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमान जी की आराधना करती थी। उस दिन वह न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी। वृद्धा को व्रत करते हुए अनेक दिन बीत गए। एक बार हनुमान जी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची। हनुमान जी साधु का वेश धारण कर वहाँ गए और पुकारने लगे -'है कोई हनुमान भक्त जो हमारी इच्छा पूर्ण करे?' पुकार सुन वृद्धा बाहर आई और बोली- 'आज्ञा महाराज?' साधु वेशधारी हनुमान बोले- 'मैं भूखा हूँ, भोजन करूँगा। तू थोड़ी ज़मीन लीप दे।' वृद्धा दुविधा में पड़ गई। अंततः हाथ जोड़ बोली- 'महाराज! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें, मैं अवश्य पूर्ण करूँगी।' साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा- 'तू अपने बेटे को बुला। मै उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाऊँगा।' वृद्धा के पैरों तले धरती खिसक गई, परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध थी। उसने मंगलिया को बुलाकर साधु के सुपुर्द कर दिया। मगर साधु रूपी हनुमान जी ऐसे ही मानने वाले न थे। उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई। आग जलाकर, दुखी मन से वृद्धा अपने घर के अन्दर चली गई। इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा को बुलाकर कहा- 'मंगलिया को पुकारो, ताकि वह भी आकर भोग लगा ले।' इस पर वृद्धा बहते आंसुओं को पौंछकर बोली -'उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ।' लेकिन जब साधु महाराज नहीं माने तो वृद्धा ने मंगलिया को आवाज़ लगाई। पुकारने की देर थी कि मंगलिया दौड़ा-दौड़ा आ पहुँचा। मंगलिया को जीवित देख वृद्धा को सुखद आश्चर्य हुआ। वह साधु के चरणों में गिर पड़ी। साधु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए। हनुमान जी को अपने घर में देख वृद्धा का जीवन सफल हो गया। मंगल प्रदोष व्रत से शंकर (हनुमान भी रुद्र हैं) और पार्वती जी इसी तरह भक्तों को साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं।
बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत से सर्व कामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस व्रत में हरी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। शंकर भगवान की आराधना धूप, बेल-पत्रादि से करनी चाहिए।
व्रत कथा
एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ। विवाह के दो दिनों बाद उसकी पत्नी मायके चली गई। कुछ दिनों के बाद वह पुरुष पत्नी को लेने उसके यहाँ गया। बुधवार को जब वह पत्नी के साथ लौटने लगा तो ससुराल पक्ष ने उसे रोकने का प्रयत्न किया कि विदाई के लिए बुधवार शुभ नहीं होता। लेकिन वह नहीं माना और पत्नी के साथ चल पड़ा। नगर के बाहर पहुँचने पर पत्नी को प्यास लगी। पुरुष लोटा लेकर पानी की तलाश में चल पड़ा। पत्नी एक पेड़ के नीचे बैठ गई। थोड़ी देर बाद पुरुष पानी लेकर वापस लौटा उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी के साथ हंस-हंसकर बातें कर रही है और उसके लोटे से पानी पी रही है। उसको क्रोध आ गया। वह निकट पहुँचा तो उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उस आदमी की सूरत उसी की भांति थी। पत्नी भी सोच में पड़ गई। दोनों पुरुष झगड़ने लगे। भीड़ इकट्ठी हो गई। सिपाही आ गए। हमशक्ल आदमियों को देख वे भी आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने स्त्री से पूछा 'उसका पति कौन है?' वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। तब वह पुरुष शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा- 'हे भगवान! हमारी रक्षा करें। मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने सास-श्वशुर की बात नहीं मानी और बुधवार को पत्नी को विदा करा लिया। मैं भविष्य में ऐसा कदापि नहीं करूँगा।' जैसे ही उसकी प्रार्थना पूरी हुई, दूसरा पुरुष अन्तर्धान हो गया। पति-पत्नी सकुशल अपने घर पहुँच गए। उस दिन के बाद से पति-पत्नी नियमपूर्वक बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत रखने लगे।
गुरु त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
शत्रु विनाशक-भक्ति प्रिय, व्रत है यह अति श्रेष्ठ।
वार मास तिथि सर्व से, व्रत है यह अति ज्येष्ठ॥
व्रत कथा
एक बार इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ। देवताओं ने दैत्य-सेना को पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। यह देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित हो स्वयं युद्ध को उद्यत हुआ। आसुरी माया से उसने विकराल रूप धारण कर लिया। सभी देवता भयभीत हो गुरुदेव बृहस्पति की शरण में पहुँचे। बृहस्पति महाराज बोले- पहले मैं तुम्हे वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूँ। वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है। उसने गन्धमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया। पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया। वहाँ शिव जी के वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान देख वह उपहासपूर्वक बोला- 'हे प्रभो! मोह-माया में फँसे होने के कारण हम स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं। किन्तु देवलोक में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि स्त्री आलिंगनबद्ध हो सभा में बैठे।' चित्ररथ के यह वचन सुन सर्वव्यापी शिवशंकर हंसकर बोले- 'हे राजन! मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है। मैंने मृत्युदाता-कालकूट महाविष का पान किया है, फिर भी तुम साधारणजन की भाँति मेरा उपहास उड़ाते हो!' माता पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ से संबोधित हुई- 'अरे दुष्ट! तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ मेरा भी उपहास उड़ाया है। अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूँगी कि फिर तू ऐसे संतों के उपहास का दुस्साहस नहीं करेगा- अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, मैं तुझे शाप देती हूं।' जगदम्बा भवानी के अभिशाप से चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त हो त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्पन्न हो वृत्रासुर बना। 'वृत्रासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा है। अतः हे इन्द्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो।' देवराज ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया। गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शान्ति छा गई।
शुक्र त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
अभीष्ट सिद्धि की कामना, यदि हो हृदय विचार।
धर्म, अर्थ, कामादि, सुख, मिले पदारथ चार॥
व्रत कथा
प्राचीनकाल की बात है, एक नगर में तीन मित्र रहते थे - एक राजकुमार, दूसरा ब्राह्मण कुमार और तीसरा धनिक पुत्र। राजकुमार व ब्राह्मण कुमार का विवाह हो चुका था। धनिक पुत्र का भी विवाह हो गया था, किन्तु गौना शेष था। एक दिन तीनों मित्र स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे। ब्राह्मण कुमार ने स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा- 'नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।' धनिक पुत्र ने यह सुना तो तुरन्त ही अपनी पत्नी को लाने का निश्चय किया। माता-पिता ने उसे समझाया कि अभी शुक्र देवता डूबे हुए हैं। ऐसे में बहू-बेटियों को उनके घर से विदा करवा लाना शुभ नहीं होता। किन्तु धनिक पुत्र नहीं माना और ससुराल जा पहुँचा। ससुराल में भी उसे रोकने की बहुत कोशिश की गई, मगर उसने ज़िद नहीं छोड़ी। माता-पिता को विवश होकर अपनी कन्या की विदाई करनी पड़ी। ससुराल से विदा हो पति-पत्नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया अलग हो गया और एक बैल की टांग टूट गई। दोनों को काफ़ी चोटें आईं फिर भी वे आगे बढ़ते रहे। कुछ दूर जाने पर उनकी भेंट डाकुओं से हो गई। डाकू धन-धान्य लूट ले गए। दोनों रोते-पीटते घर पहुँचे। वहाँ धनिक पुत्र को साँप ने डस लिया। उसके पिता ने वैद्य को बुलवाया। वैद्य ने निरीक्षण के बाद घोषणा की कि धनिक पुत्र तीन दिन में मर जाएगा; जब ब्राह्मण कुमार को यह समाचार मिला तो वह तुरन्त आया। उसने माता-पिता को शुक्र प्रदोष व्रत करने का परामर्श दिया और कहा- 'इसे पत्नी सहित वापस ससुराल भेज दें। यह सारी बाधाएँ इसलिए आई हैं क्योंकि आपका पुत्र शुक्रास्त में पत्नी को विदा करा लाया है। यदि यह वहाँ पहुँच जाएगा तो बच जाएगा।' धनिक को ब्राह्मण कुमार की बात ठीक लगी। उसने वैसा ही किया। ससुराल पहुँचते ही धनिक कुमार की हालत ठीक होती चली गई। शुक्र प्रदोष के माहात्म्य से सभी घोर कष्ट टल गए ।
शनि त्रयोदशी प्रदोष व्रत और कथा
पुत्र कामना हेतु यदि, हो विचार शुभ शुद्ध।
शनि प्रदोष व्रत परायण, करे सुभक्त विशुद्ध॥
व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है। एक नगर सेठ धन-दौलत और वैभव से सम्पन्न था। वह अत्यन्त दयालु था। उसके यहाँ से कभी कोई भी ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। वह सभी को जी भरकर दान-दक्षिणा देता था। लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्नी स्वयं काफ़ी दुखी थे। दुःख का कारण था- उनके सन्तान का न होना। सन्तानहीनता के कारण दोनों घुले जा रहे थे। एक दिन उन्होंने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया और अपने काम-काज सेवकों को सौंपकर चल पड़े। अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े। दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए। पति-पत्नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नहीं टूटी। मगर सेठ पति-पत्नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे। अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे। सेठ पति-पत्नी को देख वह मन्द-मन्द मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले- 'मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूँ वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।' साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई।
हे रुद्रदेव शिव नमस्कार।
शिव शंकर जगगुरु नमस्कार॥
हे नीलकंठ सुर नमस्कार।
शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार॥
हे उमाकान्त सुधि नमस्कार।
उग्रत्व रूप मन नमस्कार ॥
ईशान ईश प्रभु नमस्कार।
विश्वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार॥
तीर्थयात्रा के बाद दोनों वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे। कालान्तर में सेठ की पत्नी ने एक सुन्दर पुत्र जो जन्म दिया। शनि प्रदोष व्रत के प्रभाव से उनके यहाँ छाया अन्धकार लुप्त हो गया। दोनों आनन्दपूर्वक रहने लगे।
त्रयोदशी व्रत उद्यापन विधि
धर्मालुओं को ग्यारह त्रयोदशी अथवा वर्ष भर की 26 त्रयोदशी के व्रत करने के उपरान्त उद्यापन करना चाहिए। कार्य सिद्धि के उपरान्त त्रयोदशी के दिन ही उद्यापन करें। एक दिन पूर्व गणेश पूजन करें। रात्रि में भजन-कीर्तन द्वारा जागरण करें। प्रातः स्नानादि के उपरान्त रंगीन पद्म-पुष्प अथवा वस्त्रों से मंडप को सजाएं। मंडप में शिव-पार्वती की मूर्ति स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन करें। हवन में खीर की आहुति देते हुए ॐ उमा सहित शिवाय नमः मन्त्र का 108 बार जप करें। हवन के बाद आरती उतारें और शान्ति पाठ करें। तत्पश्चात् दो ब्राह्मणों को भोजन कराऐं तथा यथाशक्ति दान दें। ब्राह्मणों का आशीर्वाद लें। स्कन्द पुराण में कहा गया है कि जो स्त्री-पुरुष विधि-विधान के साथ यह व्रत एवं उद्यापन करते हैं, भगवान शंकर-पार्वती उनकी समस्त मनोकामनाऐं पूर्ण करते हैं। फलस्वरूप उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है।
पूजा और आरती शब्द से पहले संध्यावंदन और संध्योपासना शब्द प्रचलन में था। संधिकाल में ही संध्यावंदन करने का विधान है।वैसे संधि 8 वक्त की होती है जिसे 8 प्रहर कहते हैं। 8 प्रहर के नाम : दिन के 4 प्रहर- पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न और सायंकाल। रात के 4 प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। उषाकाल और सायंकाल में संध्यावंदन की जाती है।
संध्यावंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। वेदज्ञ और ईश्वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ कि संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के 4 प्रकार हो गए हैं-1. प्रार्थना-स्तुति, 2. ध्यान-साधना, 3. कीर्तन-भजन और 4. पूजा-आरती।व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा ही करता है।
घर में पूजा का प्रचलन :कुछ विद्वान मानते हैं कि घर में पूजा का प्रचलन मध्यकाल में शुरू हुआ, जबकि हिन्दुओं को मंदिरों में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कई मंदिरों को तोड़ दिया गया था। हालांकि घर में पूजा करने से किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं। घर में पूजा नित्य-प्रतिदिन की जाती है और मंदिर में पूजा या आरती में शामिल होने के विशेष दिन नियुक्त हैं, उसमें भीप्रति गुरुवार को मंदिर की पूजा में शामिल होना चाहिए।
घर में पूजा करते वक्त कोई पुजारी नहीं होता जबकि मंदिर में पुजारी होता है। मंदिर में पूजा के सभी विधान और नियमों का पालन किया जाता है, जबकि घर में व्यक्ति अपनी भक्ति को प्रकट करने के लिए और अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए पूजा करता है। लाल किताब के अनुसार घर में मंदिर बनाना आपके लिए अहितकारी भी हो सकता है। घर में यदि पूजा का स्थान है तो सिर्फ किसी एक ही देवी या देवता की पूजा करें जिसे आप अपना ईष्ट मानते हैं।
गृहे लिंगद्वयं नाच्यं गणेशत्रितयं तथा।
शंखद्वयं तथा सूर्यो नार्च्यो शक्तित्रयं तथा।।
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्राम शिलाद्वयम्।
तेषां तु पुजनेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही।।
अर्थ- घर में 2 शिवलिंग, 3 गणेश, 2 शंख, 2 सूर्य, 3 दुर्गा मूर्ति, 2 गोमती चक्र और 2 शालिग्राम की पूजा करने से गृहस्थ मनुष्य को अशांति होती है।
(Pradosh Vrat) प्रदोष व्रत
Pradosh Vrat or Pradosham is done to worship of Lord Shiva and Parvati on trayodashi (thirteenth day in Hindu month). There are two Pradosh days in a Hindu month, one in shukla paksha and other in krishna paksha.Pradosh Vrat is observed on both Trayodashi Tithis, i.e. Shukla Paksha Trayodashi and Krishna Paksha Trayodashi, in lunar month. Some people distinguish between Shukla and Krishna Paksha Pradosham.
Story Behind Prodosh Vrat :
- As per the Skanda Puran there are two different methods of fasting on the Pradosh vrat.
- In the first method, the devotes observe strict fast for whole day and night, that is, 24 hours and which also includes keeping a vigil at night.
- In the second method the fasting is observed from the sunrise until sunset, and the fast is broken after worshipping Lord Shiva in the evening.
Different Types of Pradosh Vrat :
- It is known as Soma Pradosham or Chandra Pradosham when falling on Monday.
- It is known as Bhauma Pradosham when falling on Tuesday.
- It is known as Shani Pradosham when falling on Saturday.
Importance of Pradosh Vrat in Hinduism:
- Pradost Vrat is considered very auspicious and an important vrat among all the other vrata.
- It is also said that worshiping Lord Shiva on this day washes all your sins and an individual can obtain moksha or mukti after death.
- Accordingly, keeping Pradosh vrat or donating two cows get the same rewards.
- It is believed that the person who perform vrat on Pradosh dates “Lord Shiva will be his”.
Rituals in the Pradosh Vrat:
- On the day of Pradosham, the twilight period that is the time just before sunrise and sunset is considered to be auspicious. All the prayers and pujas are observed during this time only.
- One hour before the sunset, the devotees take a bath and get ready for the puja.
- A preliminary puja is performed where Lord Shiva is worshipped along with Goddess Parvati, Lord Ganesh, Lord Kartik and Nandi. After which there is a ritual where Lord Shiva is worshipped and invoked in a sacred pot or ‘Kalasha’. This Kalasha is kept on the darbha grass with lotus drawn on it and is filled with water.
- In some places, the worship of the Shivling is also performed. The Shivling is given a bath with sacred substances like milk, curd and ghee. The puja is performed and the devotees offer Bilva leaves on the Shivling. Some people also use a picture or painting of Lord Shiva for worshipping. It is believed that offering Bilva leaves on the day of Pradosha vrat is highly auspicious.
- After this ritual, the devotees listen to the Pradosha vrat katha or read stories from the Shiva Purana.
- The Maha Mrityunjaya Mantra is enchanted 108 times.
- After the puja is over, the water from the Kalasha is partaken and the devotees apply the sacred ash on their forehead.
- After the puja, most of the devotees visit the Lord Shiva temples for darshan. It is believed that lighting even a single lamp on the day of Pradosham is very rewarding.
- Significance of Pradosha Vrat:
- The benefits of the Pradosha vrat are explicitly mentioned in the Skanda Purana.
- It is said that one who observes this revered fast with devotion and faith is bound to possess contentment, wealth and good health.
- This vratham is also observed for spiritual upliftment and fulfilment of one’s desires.
- The Pradosha vrat has been greatly lauded by the Hindu scriptures and is held very sacred for the followers of Lord Shiva.