सावन मास में शिवजी के रुद्राभिषेक/ रुद्राष्टाध्यायी का पाठ Shivji Rudrabhishek in Sawan Maas/ Importanceof Rudrabhishek in Sawan Mass /Shravan mass
‘वेद: शिव: शिवो वेद:’ वेद शिव हैं और शिव वेद हैं अर्थात् शिव वेद स्वरूप हैं। यह भी कहा है कि वेद नारायण का साक्षात् स्वरूप है-‘वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम।’ इसके साथ वेद को परमात्म प्रभु का नि:श्वास कहा गया है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में वेद की अनुपम महिमा है। जैसे ईश्वर अनादि-अपौरुषेय हैं, उसी प्रकार वेद भी सनातन जगत् में अनादि-अपौरुषेय माने जाते हैं। इसीलिये वेद-मन्त्रों द्वारा शिवजी का पूजन, अभिषेक, यज्ञ और जप आदि किया जाता है।
‘शिव’ और ‘रुद्र’ ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र कहा जाता है- ये‘रुत्’ अर्थात् दु:ख को विनष्ट कर देते हैं-
‘रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीति रुद्र:।’
ऱुद्र भगवान् की श्रेष्ठता के विषय में रुद्रहृदयोपनिषद् में इस प्रकार लिखा है-
सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।
रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:। यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।।
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।
इसी प्रमाण के आधार पर यह सिद्ध होता है कि रुद्र ही मूलप्रकृति-पुरुषमय आदिदेव साकार ब्रह्म हैं। वेदविहित यज्ञपुरुष स्वयम्भू रुद्र हैं।
यजुर्वेद की शुक्लयजुर्वेद संहिता में आठ अध्यायों में भगवान रुद्र का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसे ‘रुद्राष्टाध्यायी’ कहते हैं ।
रुद्राष्टाध्यायी के आठ अध्याय
प्रथम अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का प्रथम अध्याय ‘शिवसंकल्प सूक्त’ कहा जाता है । इसमें साधक का मन शुभ विचार वाला हो, ऐसी प्रार्थना की गयी है । यह अध्याय गणेशजी का माना जाता है । इस अध्याय का पहला मन्त्र श्रीगणेश का प्रसिद्ध मन्त्र है—‘गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधिनां त्वा निधिपति हवामहे । वसो मम ।।’
द्वितीय अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का द्वितीय अध्याय भगवान विष्णु का माना जाता है । इसमें १६ मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ के हैं जिसके देवता विराट् पुरुष हैं । सभी देवताओं का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त के मन्त्रों से ही किया जाता है । इसी अध्याय में लक्ष्मीजी के मन्त्र भी दिए गए हैं ।
तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय के देवता इन्द्र हैं । इस अध्याय को ‘अप्रतिरथ सूक्त’ कहा जाता है । इसके मन्त्रों के द्वारा इन्द्र की उपासना करने से शत्रुओं और प्रतिद्वन्द्वियों का नाश होता है ।
चौथा अध्याय
चौथा अध्याय ‘मैत्र सूक्त’ के नाम से जाना जाता है । इसके मन्त्रों में भगवान मित्र अर्थात् सूर्य का सुन्दर वर्णन व स्तुति की गयी है ।
पांचवा अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का प्रधान अध्याय पांचवा है । इसमें ६६ मन्त्र हैं । इसको ‘शतरुद्रिय’, ‘रुद्राध्याय’ या ‘रुद्रसूक्त’ कहते हैं ।
शतरुद्रिय यजुर्वेद का वह अंश है, जिसमें रुद्र के सौ या उससे अधिक नाम आए हैं और उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है । रुद्राध्याय के आरम्भ में भगवान रुद्र के बहुत से नाम ‘नमो नम:’ शब्दों से बारम्बार दुहराये जाने के कारण इस भाग का नाम ‘नमकम्’ पड़ा । इसका प्रथम मन्त्र ही कितना सुन्दर है—
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नम: ।
बाहुभ्यामुत ते नम: ।।
अर्थ—‘हे रुद्रदेव ! आपके क्रोध को हमारा नमस्कार है । आपके बाणों को हमारा नमस्कार है एवं आपके बाहुओं को हमारा नमस्कार है ।’
इस मन्त्र में दुष्टों के नाश के लिए रुद्र के क्रोध, बाणों और बाहुओं को नमस्कार किया गया है ।
शतरुद्रिय की महिमा
शतरुद्रिय की महिमा को इसी बात से जाना जा सकता है कि एक बार याज्ञवल्क्य ऋषि से शिष्यों ने पूछा—‘किसके जप से अमृत तत्त्व (अमरता) की प्राप्ति होती है ?’ ऋषि ने उत्तर दिया—‘शतरुद्रिय के जप से ।’
रुद्राध्याय में वर्णित भगवान रुद्र के सभी नामों में अमृतत्व प्रदान करने की सामर्थ्य है, इसके पाठ से मनुष्य स्वयं रोगों व पापों से मुक्त होकर मृत्युंजय (अमर) हो जाता है ।
केवल रुद्राध्याय के पाठ से ही वेदपाठ के समान फल की प्राप्ति होती है ।
भगवान रुद्र की शतरुद्रीय उपासना से दु:खों का सब प्रकार से नाश हो जाता है । दु:खों का सर्वथा नाश ही मोक्ष कहलाता है ।
छठा अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी के छठे अध्याय को ‘महच्छिर’ कहा जाता है । इसी अध्याय में ‘महामृत्युंजय मन्त्र का उल्लेख है—
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ।।
अर्थ—इस मन्त्र में भगवान त्र्यम्बक शिवजी से प्रार्थना है कि जिस प्रकार ककड़ी का पका फल वृन्त (डाल) से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हमें आप जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करें । हम आपका यजन करते हैं ।
सातवां अध्याय
सातवें अध्याय को ‘जटा’ कहा जाता है । इस अध्याय के कुछ मन्त्र अन्त्येष्टि-संस्कार में प्रयोग किए जाते हैं ।
आठवां अध्याय
आठवे अध्याय को ‘चमकाध्याय’ कहा जाता है । इसमें २९ मन्त्र हैं । भगवान रुद्र से अपनी मनचाही वस्तुओं की प्रार्थना ‘च मे च मे’ अर्थात् ‘यह भी मुझे, यह भी मुझे’ शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ की गयी है इसलिए इसका नाम ‘चमकम्’पड़ा । रुद्राष्टाध्यायी के अंत में शान्त्याध्याय के २४ मन्त्रों में विभिन्न देवताओं से शान्ति की प्रार्थना की गयी है तथा स्वस्ति-प्रार्थनामंत्राध्याय में १२ मन्त्रों में स्वस्ति (मंगल, कल्याण, सुख) प्रार्थना की गयी है ।